अब्दुल हई फ़ज़ल मुहम्मद ( साहिर लधियानवी )
सहिर साहब ने अपने इश्क़ को कभी भी दुनिया के सामने जाहिर नहीं किया, और उन्होंने अपना हर इश्क़ अधूरा ही छोड़ दिया , शायद इसलिए कि वह साहिर बने रह सके।
वहीं अमृता प्रीतम साहिर लुध्यानवी से अपने इश्क़ का इकरार करते हुए कहती हैं कि
साहिर घंटों बैठा रहता और बस सिगरेटें फूंकता रहता और कुछ न कहता. उसके जाने के बाद में उन बचे हुए सिगरेटों के टुकड़े संभालकर रख लेती, फिर अकेले में पीती और साहिर के हाथ और होंठ महसूस करती. जब इमरोज़ के बच्चे की मां बनी तो बच्चे के साहिर के जैसे होने की ख़्वाहिश की. ‘अगर इमरोज़ मेरे सर पर छत है तो साहिर मेरा आसमां.’ अमृता ने साहिर का बहुत इंतज़ार किया पर वे नहीं आए.
साहिर साहब भले ही अपने इश्क को दुनिया से छुपाते रहें हों मगर उनके कलम ने हमेशा उनके जज़्बात की तर्जुमानी की है , और अपने दिल की खलिश को कम करने के लिए उन्होन कहा कि...
‘तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक़ है तुमको.
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है...
वैसे तो साहिर साहब के इश्क़ की बहुत खबरें चलीं मगर साहिर साहब का हर इश्क़ अधूरा ही रहा , लेकिन इश्क तो अमर होता है. इसे सरहदों, जातियों, मजहब या वक्त के दायरे में नहीं बांधा जा सकता. मोहब्बत की कहानियां, किरदारों के गुजर जाने के बाद भी जिंदा रहती हैं. ये एक ऐसी शय है कि इसके खरीदार जमाने के बाजार में हमेशा रहते हैं.
आज भी इश्क के अफसाने लोगों में प्यार का जुनून पैदा कर देते हैं. इश्क के बारे में दिलचस्प बात ये भी है कि ये अक्सर मंजिल पर पहुंचते-पहुंचते लड़खड़ा जाता है. राह भटक जाता है। ऐसी मोहब्बत के लिए ख़ुद साहिर साहब ने लिखा था कि..
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन।
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा..
कुछ लोगों का ऐसा भी मानना था कि साहिर साहब जान बूझकर अपने इश्क़ को अधूरा छोड़ देते थे जिससे कि वह अपनी शायरी में दर्द पैदा कर सकें. कहते हैं की इश्क़ का ताल्लुक़ दिल से होता है और इस अधूरे इश्क़ की वबा ने आखिर कार एक दिन सहिर साहब को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि ....
" किस दर्जा दिल शिकन थे मोहब्बत के हादसे
हम ज़िन्दगी मे फिर कोई अरमां न कर सके "
28 Oct 1980 को साल की उम्र मे दिल दौरा पड़ने की वजह से साहिर साहब अपने अधूरे इश्क़ को छोड़ कर अपने चाहने वालों को अपने गीतों में छुपे गम के सहारे करके ये कहते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया कि.......
दुनिया ने तजरबात ओ हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं।।।।।
जज़्बात भी हिन्दू होते हैं,चाहत भी मुसलमां होती है
दुनिया का इशारा था लेकिन,समझा न इशारा, दिल ही तो है
बेदाद-गरों की ठोकर से,सब ख़्वाब सुहाने चूर हुए
अब दिल का सहारा ग़म ही तो है,अब ग़म का सहारा, दिल ही तो है..
No comments:
Post a Comment