Friday, April 3, 2015

*** फिर समझ आया। ***

                                                  ***  फिर समझ आया।  ***               Written  by  mjrahi
            अब तो अक्सर रातों को जागने की आदत सी  हो गईं है।
और सिर्फ जागना ही नही, सोचना भी इसमें शामिल है।
बार-बार बस एक ही ख्याल, वह भी उसका जिसने कुछ भी  नही समझा ।
फिर ख्यालों ही ख्यालों में , मन में उभरने लगते हैं कई सवाल।
फिर सोचता हूँ , कि यह ख्याल जो मुझे पवित्र और पाक लगता है,
वासना तो नही।
मगर अगले ही पल फिर ख्याल आता है,
कि उसके मन में यह ख्याल कहाँ से आया?
पवित्र प्रेम को उसने कियूँ वासना बताया ?
       फिर समझ आया।
डूबती कश्ती ने सहारा पाकर।
छोड़ दया साथ किनारा पाकर।
हम जिसे अपनी जान समझते थे,
कह गया जाते जाते।
हम करेंगे भी तो क्या ? तकदीर का मारा पाकर।
 हयात उधर भी बाक़ी  है ,
  मैं भी इधर हूँ ज़िंदा ।  
वह अपने फैसले पर खुश ,
   मैं अपनी सोच पर शर्मिंदा।
         और अब  उसी तरह इस ज़िंदगी में दिन भी है,और रात भी है ,
 ग़मो का साया भी  है, और खुशयों की बरसात भी है
मगर इसके बावजूद। ………………
  

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